नारद का अभिमान भंग: एक कथा
नारद मुनि, जो ब्रह्मा जी के परम भक्त और ज्ञानी थे, अपने ज्ञान और तपस्या के कारण देवताओं में सम्मानित थे। उनका आशीर्वाद, उनके विचार और उनके मार्गदर्शन से देवता और ऋषि सभी प्रेरित होते थे। वह हर समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव के चरित्र का बखान करते और यही उनकी पहचान थी। हालांकि, उनकी महानता के बीच एक छोटा सा अभिमान भी था, जो धीरे-धीरे उनके मन में समा गया था।
नारद मुनि का यह अभिमान यह था कि वह स्वयं को अन्य सभी देवताओं और ऋषियों से श्रेष्ठ मानते थे। उन्हें यह विश्वास था कि उनका ज्ञान और तपस्या इतना ऊँचा है कि वे सबको उपदेश देने और मार्गदर्शन करने के योग्य हैं। उनका यह अहंकार बढ़ता ही गया और वह कभी-कभी दूसरों को अपनी तुलना में निम्न मानने लगे।
एक दिन, नारद मुनि ब्रह्मलोक में बैठे हुए थे और वह भगवान विष्णु की स्तुति कर रहे थे। भगवान विष्णु ने उन्हें देखा और कहा, “नारद, तुम बहुत महान हो, लेकिन एक चीज़ जो मैं देख रहा हूँ, वह यह है कि तुम्हारे भीतर एक छोटा सा अहंकार बढ़ रहा है। तुम दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करने लगे हो। क्या तुम नहीं समझते कि यह तुम्हारी दिव्यता के रास्ते में एक रुकावट हो सकती है?”
नारद मुनि ने भगवान विष्णु की बात को ध्यान से सुना, लेकिन उनका मन अपनी श्रेष्ठता के विचार से उबर नहीं पा रहा था। वह सोचने लगे, "क्या भगवान विष्णु मुझे अभिमान के लिए कह रहे हैं? मैं तो केवल सत्य का प्रचार कर रहा हूँ, और मेरा ज्ञान तो सभी से ऊपर है!"
तभी भगवान विष्णु ने एक योजना बनाई, ताकि नारद मुनि को अपने अभिमान का एहसास हो। उन्होंने नारद मुनि से कहा, “तुम बहुत श्रेष्ठ हो, नारद। लेकिन क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे ज्ञान की परीक्षा लूँ?”
नारद मुनि ने गर्व से उत्तर दिया, “भगवान, मैं हमेशा आपकी कृपा से ज्ञान प्राप्त करता हूँ। अगर आप चाहें तो मुझे किसी भी परीक्षा में डाल सकते हैं, मैं हर सवाल का उत्तर दे सकता हूँ।”
भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है, नारद। मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। तुम पृथ्वी पर जाओ, और वहाँ किसी साधारण मनुष्य के जीवन को जानकर आओ। मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी यात्रा पर एक वस्तु ले जाओ – वह है तुम्हारी अपनी पहचान और अभिमान। यदि तुम उस वस्तु को पृथ्वी पर छोड़ आते हो, तो तुम्हारे ज्ञान में और भी वृद्धि होगी।”
नारद मुनि भगवान विष्णु की बातों को गंभीरता से नहीं लेते हुए चल पड़े। उन्होंने सोचा, "यह मेरी सरल परीक्षा होगी। मुझे क्या लगता है कि कोई भी मनुष्य मेरी तुलना में श्रेष्ठ हो सकता है?"
वह पृथ्वी पर पहुंचे और वहाँ एक साधारण गांव में रहने लगे। उन्होंने गाँववालों के संघर्ष, उनकी मेहनत, दुख और खुशियों को देखा। एक दिन, वह एक वृद्ध व्यक्ति के पास गए, जो एक छोटे से घर में अकेला रहता था। वृद्ध व्यक्ति ने नारद मुनि को अपने घर बुलाया और उन्हें भोजन दिया। उन्होंने बताया कि कैसे वह अपने जीवन में अपार दुखों के बावजूद संतुष्ट हैं, और वह भगवान का ध्यान करते हैं।
नारद मुनि ने पूछा, “तुम इतने सारे दुखों के बावजूद खुश क्यों रहते हो?”
वृद्ध व्यक्ति ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “जो हम पा सकते हैं, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। जीवन के हर पल का आनंद लिया जाता है। हमारे पास जो है, वह हमारे लिए पर्याप्त है, और हम हर परिस्थिति में भगवान का आभार करते हैं।”
नारद मुनि को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वह अभिमान के चलते अपनी यात्रा में इस गहरी साधना को नजरअंदाज कर चुके थे। वृद्ध व्यक्ति के शब्दों ने उनके दिल में एक हलचल पैदा की, और उन्हें समझ में आया कि असली ज्ञान वही है जो किसी के दिल में विनम्रता और संतोष से भरा हो।
जब नारद मुनि भगवान विष्णु के पास लौटे, तो वह अपनी पहचान और अभिमान को पूरी तरह छोड़ चुके थे। भगवान विष्णु ने देखा और कहा, “नारद, अब तुमने समझ लिया है। ज्ञान केवल तब वास्तविक होता है जब उसमें विनम्रता और सहजता होती है। तुम्हारा अभिमान अब तुम्हारे मार्ग में कोई रुकावट नहीं बनेगा। यही तुम्हारी असली परीक्षा थी।”
नारद मुनि ने भगवान विष्णु के सामने सिर झुका दिया और कहा, “हे भगवान, मुझे अपनी गलतियों का एहसास हुआ। मैंने अभिमान में फंसकर बहुत कुछ खो दिया था। अब मैं जानता हूँ कि सचमुच का ज्ञान वही है जो आत्मा में निष्ठा, विनम्रता और संतोष से आता है।“
इस प्रकार, नारद मुनि का अभिमान भंग हुआ और उन्हें असली ज्ञान की प्राप्ति हुई। अब वह केवल भगवान के भजनों में खोए रहते थे, न कि अपने ज्ञान या तपस्या के गर्व में। उनका जीवन एक उदाहरण बन गया कि जब तक हम अपने अभिमान को त्याग नहीं करते, तब तक हम सच्चे ज्ञान की ओर नहीं बढ़ सकते।
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