Monday, March 10, 2025

नारद जी का अभिमान और भगवान की माया

 नारद जी का अभिमान और भगवान की माया

एक बार नारद जी को यह एहसास हुआ कि उनका भक्तिभाव सर्वश्रेष्ठ है। उनका मन यह मानने लगा कि भगवान विष्णु से बढ़कर कोई भक्त नहीं हो सकता, और इसी भावना ने उनका व्यवहार भी बदल दिया। वे भगवान के गुणों का गान करते हुए अपनी भक्ति और सेवा के कार्यों का बार-बार बखान करने लगे। यह सब भगवान विष्णु से छुपा नहीं रहा। भगवान ने तुरंत महसूस किया कि नारद जी का यह अभिमान उनकी भक्ति के मार्ग में रुकावट डाल रहा है। वे उन्हें इस अभिमान से मुक्त करना चाहते थे, ताकि वह सही मार्ग पर चल सकें।

एक दिन, भगवान विष्णु और नारद जी साथ-साथ वन में चल रहे थे। चलते-चलते भगवान विष्णु थक गए और बोले, "नारद जी, हम थक गए हैं और प्यासे भी हैं। अगर कहीं पानी मिल जाए तो लाकर पिलाओ, हमसे तो अब और नहीं चला जाता।" नारद जी तुरंत बोले, "भगवान, आप थोड़ी देर यहीं आराम करें, मैं अभी पानी लाकर लाता हूँ।" और बिना किसी देरी के वे दौड़ पड़े।

भगवान विष्णु ने उनकी यह अति सेवा भावना देखी, लेकिन इसके साथ ही वे अपनी माया को आदेश देने लगे कि नारद जी को थोड़ी देर के लिए सत्य से भटका दिया जाए। 

नारद जी जैसे ही गाँव पहुंचे, उन्हें वहाँ एक सुंदर कन्या पानी भरते हुए दिखी। उस कन्या को देखते ही उनका ध्यान पूरी तरह से उस पर केंद्रित हो गया। भगवान को पानी लाने की बात पूरी तरह भूल गए। कन्या भी नारद जी की नज़रों में जो पड़ गई थी, वह समझ गई और जल्दी से जल का घड़ा भरकर अपने घर चली गई। नारद जी भी उसे पीछा करते हुए घर तक पहुंच गए, और फिर भगवान का नाम लेकर दरवाजे पर खड़े हो गए। 

घर के मालिक ने उन्हें देखा और सम्मान से उनका स्वागत किया। नारद जी ने सीधे कहा, "आपकी कन्या जल लाकर आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ।" गृहस्वामी को पहले तो थोड़ी हैरानी हुई, लेकिन फिर उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकृति दे दी। नारद जी और कन्या का विवाह हुआ, और नारद जी ने वहीं गाँव में बसने का निर्णय लिया।

वर्षों तक नारद जी अपनी गृहस्थी में खो गए। खेती-बाड़ी करने लगे, बच्चों की परवरिश करने लगे, और भगवान की भक्ति को धीरे-धीरे भूल गए। समय के साथ उनका जीवन एक सम्पन्न किसान के रूप में बदल गया। लेकिन एक दिन ऐसा आया, जब गाँव में मूसलधार बारिश हुई, और बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई। नारद जी ने अपने परिवार को लेकर जान बचाने की कोशिश की, लेकिन बाढ़ के पानी में उनकी पत्नी और बच्चे बह गए। उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन कुछ भी नहीं कर पाए।

अब नारद जी के मन में भगवान की याद आई। "भगवान, क्या तुम मेरी प्रतीक्षा में वही वृक्ष के नीचे बैठे हो?" यह सोचते हुए, उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। वे भगवान को पानी लाने के लिए गए थे, लेकिन बीच में गृहस्थी में उलझ गए। उनका अभिमान उन्हें भटका गया था, और वे सब कुछ भूल गए थे। भगवान के चरणों में उनका सिर झुक गया और वे भगवान से माफी मांगने लगे।

नारद जी की विनती पर भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले, "नारद, तुम कुछ समय के लिए माया में फंसे थे, लेकिन अब तुम समझ चुके हो। यह सब मेरी माया का खेल था। तुम्हारा अभिमान चूर हो गया, और तुम फिर से सरलता से मेरे साथ जुड़ गए।"

नारद जी भगवान के चरणों में बैठकर रोते हुए बोले, "भगवान, अब मुझे एहसास हुआ कि सच्ची भक्ति न तो गर्व और अहंकार से होती है, बल्कि वह विनम्रता और समर्पण से आती है। अब मैं आपके गुणों का गान सच्चे मन से करूंगा।"

भगवान विष्णु ने नारद जी को आशीर्वाद दिया और कहा, "तुम्हारा मन अब बिल्कुल शुद्ध हो चुका है, अब तुम दुनिया में माया के भ्रम से मुक्त होकर मेरे सच्चे भक्त बन गए हो।"

नारद जी ने भगवान के निर्देशों का पालन करते हुए, विनम्रता से फिर से भक्ति का मार्ग अपनाया। उनके अभिमान का घमंड पूरी तरह मिट गया था और वे अब एक सच्चे भक्त के रूप में भगवान की पूजा और गुणगान करने लगे। 

इस घटना से नारद जी ने सिखा कि जीवन में किसी भी तरह का अभिमान नहीं होना चाहिए, और भगवान की सच्ची भक्ति तभी संभव है जब हम अपने अहंकार को त्याग दें और सिर्फ समर्पण और विनम्रता से उनके साथ जुड़ें।

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