नारद ने दिया ध्रुव को नारायण मंत्र – एक प्रेरक कथा
naarad ne diya dhruv ko naaraayan mantr – ek prerak katha
बहुत समय पहले, उत्तरी भारत के एक छोटे से राज्य में एक राजा का शासन था जिसका नाम उतानपाद था। वह राजा अपनी प्रजा के प्रति बहुत दयालु और न्यायप्रिय था, लेकिन उसकी जीवन की सबसे बड़ी चिंता थी कि उसके पास संतान नहीं थी। राजा की दो पत्नियाँ थीं – सुनिति और सुरुचि। सुरुचि अत्यंत सुंदर और चालाक थी, जबकि सुनिति एक सरल और धार्मिक महिला थीं, जो राजा के प्रति अत्यधिक समर्पित थीं।
राजा उतानपाद ने अपनी दूसरी पत्नी सुरुचि से एक पुत्र, उदय, को जन्म लिया था, जो अत्यधिक सुंदर और साहसी था। उसका रूप देखने में इतना आकर्षक था कि पूरे राज्य में उसकी सुंदरता का चर्चा होता था। लेकिन दुर्भाग्यवश, सुनिति के गर्भ से कोई संतान नहीं हो रही थी, और इससे राजा उतानपाद बहुत दुखी थे।
सुनिति के मन में गहरी निराशा थी, क्योंकि वह जानती थी कि राजा का दिल अब पूरी तरह से सुरुचि और उसके पुत्र में बसा हुआ है। एक दिन सुनिति ने भगवान से प्रार्थना की और मन ही मन यह संकल्प लिया कि वह हमेशा सत्य और धर्म के मार्ग पर चलेंगी, चाहे जो भी हो। एक दिन, उसने भगवान से प्रार्थना करते हुए कहा, "हे भगवान! कृपया मुझे एक पुत्र प्रदान करें, जो धर्म और सत्य का पालन करता हो और अपने पिता का गौरव बढ़ाए।"
उसकी प्रार्थना सुनते ही भगवान ने उसकी तपस्या का उत्तर दिया। कुछ समय बाद सुनिति के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक था ध्रुव। ध्रुव का जन्म बहुत ही शुभ अवसर पर हुआ था, और वह अत्यंत सुंदर और शुद्ध हृदय वाला था। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, जीवन में कभी-कभी परिस्थितियाँ बहुत कठिन होती हैं, और ध्रुव के जीवन में भी समस्याएँ आना तय था।
राजा उतानपाद के मन में पहले से ही सुरुचि के पुत्र उदय के प्रति अधिक प्रेम था, और जब ध्रुव का जन्म हुआ, तो उसे लेकर राजा के मन में कोई खास उत्साह नहीं था। एक दिन, जब ध्रुव कुछ बड़ा हो गया, वह अपने पिता के पास गया और कहा, "पिताजी, मैं भी आपके साथ बैठकर राज्य की जिम्मेदारियों का पालन करना चाहता हूँ।" राजा उतानपाद ने उसे देखा और कहा, "तुम अभी छोटे हो, तुम्हें अभी खेलकूद और आराम करना चाहिए।"
ध्रुव को यह उत्तर बहुत कड़वा लगा, और उसे यह महसूस हुआ कि उसके पिता का दिल उसकी ओर नहीं था। यह दुख और पीड़ा उसे और गहरी होती गई, जब उसकी सौतेली माँ, सुरुचि ने कहा, "तुम पिताजी के पुत्र नहीं हो, तुम्हारी कोई अहमियत नहीं है। तुम्हें अपने स्थान से बाहर जाकर और भगवान के चरणों में आश्रय प्राप्त करना चाहिए।"
ध्रुव को यह बातें बहुत गहरी लगीं और उसने अपने दिल में ठान लिया कि वह भगवान नारायण की कृपा प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या करेगा, ताकि वह अपने पिता का प्यार और सम्मान प्राप्त कर सके। वह जंगल की ओर चल पड़ा और रास्ते में उसे संत नारद जी का दर्शन हुआ। नारद जी ने उसे देखा और पूछा, "बच्चे, तुम इस जंगल में क्या करने आए हो?"
ध्रुव ने अपनी पूरी कहानी नारद जी से कही। नारद जी ने उसकी स्थिति को समझा और उसे शांत करते हुए कहा, "तुम्हारी तपस्या का मार्ग कठिन है, लेकिन अगर तुम सच्चे मन से भगवान के पास जाओगे और पूरी निष्ठा से भक्ति करोगे, तो भगवान नारायण तुम्हारी मदद करेंगे।"
नारद जी ने ध्रुव को एक बहुत महत्वपूर्ण मंत्र दिया, जिसे 'नारायण मंत्र' कहा जाता था। उन्होंने कहा, "इस मंत्र का उच्चारण तुम पूरे मन और आत्मा से करो, और भगवान नारायण की भक्ति में समर्पित हो जाओ। तुम्हारी इच्छा पूरी होगी, लेकिन याद रखो कि सच्ची भक्ति और तपस्या के बिना कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता।"
ध्रुव ने नारद जी का आशीर्वाद लिया और उनके द्वारा बताए गए मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। वह पूरे निष्ठा और श्रद्धा से दिन-रात भगवान के मंत्र का उच्चारण करता रहा। उसकी तपस्या और भक्ति ने उसे बहुत बल और आत्मिक शांति दी। कुछ ही समय में भगवान नारायण उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गए और उनके दर्शन हुए।
भगवान नारायण ने ध्रुव से कहा, "ध्रुव, तुमने जो तपस्या की है, वह बहुत कठिन थी, लेकिन तुम्हारा हृदय शुद्ध और निष्ठावान है। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हूँ। तुम जो भी चाहो, मुझे आदेश दो।"
ध्रुव ने भगवान से कहा, "हे भगवान! मेरी केवल एक इच्छा है – मैं अपने पिता का प्रेम और सम्मान प्राप्त करना चाहता हूँ।"
भगवान नारायण ने कहा, "तुम्हारे पिता का दिल तुम्हारे प्रति जल्द ही बदल जाएगा, और तुम एक महान व्यक्ति बनोगे। तुम्हारी भक्ति के कारण तुम्हारा नाम अनंत काल तक याद किया जाएगा।"
ध्रुव की तपस्या के बाद भगवान ने उसे अपनी कृपा से धन्य किया। ध्रुव का मन शांति से भर गया और वह वापस अपने पिता के पास लौटा। अब राजा उतानपाद ने अपने पुत्र को देखा और उसका दिल बदल चुका था। उसने ध्रुव को गले लगाकर कहा, "बेटे, तुमने मुझे सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाया है। तुम मेरे लिए सबसे प्रिय हो।"
ध्रुव का जीवन भगवान नारायण की कृपा से बदल गया और उसे अपने पिता का प्यार और सम्मान मिल गया। उसके बाद ध्रुव ने राज्य का संचालन किया और सभी के दिलों में एक गहरी छाप छोड़ी।
कहानी का सार: इस कथा से यह सिखने को मिलता है कि कठिनाइयों और विषम परिस्थितियों में भी अगर हम सत्य, भक्ति और निष्ठा के साथ अपना मार्ग चुनते हैं, तो भगवान की कृपा से हमें सफलता अवश्य मिलती है। ध्रुव की तरह हमें भी कभी हार नहीं माननी चाहिए, क्योंकि सच्ची भक्ति और आत्मविश्वास हमें जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों से पार पा सकते हैं।
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